मेरी गजलों में रहता तेरा चर्चा-ए-आम आरजू
कुछ और नहीं आता नजर सुबहो-शाम आरजू
तुझे मिलके जाने कैसी वहशत हो गयी मुझमे
तेरी गलियों में फिरता हूँ बस बेमुकाम आरजू
इक बार मेरा मुकद्दर होने का जो तू वादा कर दे
सच कहता हूँ दे दूंगा मैं तो कुछ भी दाम आरजू
सदके तेरे, इबादत तेरी, और तुझे ही खुदा कहूँ
"हाँ" पर तेरी मैं तो हो जाऊं तेरा गुलाम आरजू
देखा तुझे जिस रोज से है और कुछ भाता नहीं
मिट गयीं हैं दिल की थीं जो भी तमाम आरजू
कुछ और नहीं इसके सिवा, ऐ खुदा वो मांगता
'राज' ने रखा बस अपनी दुआ का नाम आरजू