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मंगलवार, जुलाई 13, 2010

आरजू.....


मेरी गजलों में रहता तेरा चर्चा-ए-आम आरजू 
कुछ और नहीं आता नजर सुबहो-शाम आरजू 

तुझे मिलके जाने कैसी वहशत हो गयी मुझमे 
तेरी गलियों में फिरता हूँ बस बेमुकाम आरजू 

इक बार मेरा मुकद्दर होने का जो तू वादा कर दे 
सच कहता हूँ दे दूंगा मैं तो कुछ भी दाम आरजू 

सदके तेरे, इबादत तेरी, और तुझे ही खुदा कहूँ 
"हाँ" पर तेरी मैं तो हो जाऊं तेरा गुलाम आरजू 

देखा तुझे जिस रोज से है और कुछ भाता नहीं 
मिट गयीं हैं दिल की थीं जो भी तमाम आरजू 

कुछ और नहीं इसके सिवा, ऐ खुदा वो मांगता 
'राज' ने रखा बस अपनी दुआ का नाम आरजू

आरजू जैसी.....



हुयी जब ग़ज़ल खुशनुमा आरजू जैसी  
हाथ उठे औ निकली दुआ आरजू जैसी  

अब करे काफिर भी सजदा इन्ही पे ही 
के लगती है सूरत-ए-खुदा आरजू जैसी 

सहर होती है उसकी अंगडाईयों से ही
चलती है फिर बादे-सबा आरजू जैसी 

बन जाती है वो तहरीर खुबसूरत बहुत 
जिन हर्फों की हो इब्तिदा आरजू जैसी 

अल्फाज़ ''राज'' के हो जाएँ मुक्क़मल
के मिल जाए ग़ज़ल-सरा आरजू जैसी