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गुरुवार, जनवरी 14, 2010

अब शाम से चराग नहीं आंख जलती है






अब शाम से चराग नहीं आंख जलती है 
शब् ना जाने कितनी करवट बदलती है 

उसे पाने की आरजू में कैसी हो गयी है 
लोग कहते हैं वो अब नींद में चलती है 

कभी हद से ज्यादा जब वो याद आये है 
लबों से वस्ल की फ़रियाद निकलती है 

ज़माने की तोहमतों ने संग कर दिया है 
साँसों में बस एक ख़ामोशी ही पलती है 

हासिल-ऐ-किस्मत गर खार हो गए हों 
रुत-ऐ-सहरा फिर भला कहाँ टलती है