अब शाम से चराग नहीं आंख जलती है
शब् ना जाने कितनी करवट बदलती है
उसे पाने की आरजू में कैसी हो गयी है
लोग कहते हैं वो अब नींद में चलती है
कभी हद से ज्यादा जब वो याद आये है
लबों से वस्ल की फ़रियाद निकलती है
ज़माने की तोहमतों ने संग कर दिया है
साँसों में बस एक ख़ामोशी ही पलती है
हासिल-ऐ-किस्मत गर खार हो गए हों
रुत-ऐ-सहरा फिर भला कहाँ टलती है