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बुधवार, नवंबर 24, 2010

क्या कहे.....



है दिल जैसे कोई मुसीबत क्या कहें 
कैसे कटती है शबे फुरकत क्या कहें 

देखकर शरमाये, ना देखे तो भटके 
नहीं माह को कहीं है राहत क्या कहें 

और तेरी याद तो दर्द भी है सुकून भी 
बड़ी अजब सी है ये गफलत क्या कहें 

अजनबी सा लगने लगा हूँ मैं खुद को 
जब से हुई है तुमसे मुहब्बत क्या कहें 

इस बज़्म में तन्हाई सी लगे है अब तो 
इश्क की अजब सी ये वहशत क्या कहें 

कोई नज़रों में सिवा तेरे नहीं उतरता 
इनको भी हुई है तेरी आदत क्या कहें

शुक्रवार, नवंबर 19, 2010

जो दीवाना है वो तो बस दीवाना रहता है


उनके होठों पे फिर इक नया बहाना रहता है 
जब भी किये वादे पे उन्हें ना आना रहता है  

और हम नहीं के उनपे तोहमते लगाया करें 
हमे तो हर लम्हा इंतज़ार में बिताना रहता है 

नाम कुछ भी रख लो, रांझा, मजनू या महिवाल 
जो दीवाना है वो तो बस दीवाना रहता है 

हिज्र में ये आँखें बरसती हैं रात-रात भर 
जेहन में यादों के अब्र का आना-जाना रहता है 

उनके दीद को नज़रें राहों पे लगी रहती हैं 
ख्यालों के साज़ पे बस उनका ही तराना रहता है 

अपनी तन्हाई की बज़्म रास बहुत आती है 'राज़' 
यहाँ का दर्द-ओ-अलम बहुत पहचाना रहता है 

बुधवार, नवंबर 17, 2010

मुझको तो ना जाने कैसा गुमान रहता है


मुझको तो ना जाने कैसा गुमान रहता है 
उसके इंतज़ार में भी, इत्मिनान रहता है 

और उसने छत पे टहलना छोड़ा है जबसे  
उसके शहर का हर शख्स परेशान रहता है 

खलिश किसी रिश्ते में आ गयी जब यारों  
ज़ख्म भर भी जाए मगर निशान रहता है 

मेरे बुजुर्ग जब तलक हैं नज़रों के सामने    
पाओं में ज़मीं है सर पे आसमान रहता है 

इश्क के सफ़र में तो मंजिल नहीं मिलती 
कदम-कदम पे बस नया इम्तेहान रहता है 

उसकी याद और वहशत का आलम ऐसा  
जो कफस में परिंदा कोई बेजुबान रहता है 

जिन्दगी से जब भी उकता गया है ये"राज़" 
फिर लिखता रोज़ वो इक दास्तान रहता है 

सोमवार, नवंबर 15, 2010

मुहब्बत का अजब चलन देख रहा हूँ


मुहब्बत का अजब चलन देख रहा हूँ
आज उस चेहरे पे शिकन देख रहा हूँ

ये कैसी है फिजा में खामोश लहर सी
के शजर के काँधे पे थकन देख रहा हूँ

वो जलना, मचलना, लहराना, बहकना
चराग-ओ-शमा का बांकपन देख रहा हूँ 

रुत-ए-हिज्र और जेहन में याद उसकी
खारों से सज़ा कैसा चमन देख रहा हूँ

झुक गयीं पशेमानी से वो तो ज़फ़ा की
वफ़ा की हवा का खूब फन देख रहा हूँ

आह ने तहरीर को यूँ चूम क्या लिया
दर्द में भी में लुत्फे-सुखन देख रहा हूँ

शुक्रवार, नवंबर 12, 2010

वो मेरा होकर भी मुझसे जुदा रहा


वो मेरा होकर भी मुझसे जुदा रहा 
जब भी मिला बस खफा खफा रहा 

क्या मौसम आये क्या बादल बरसे 
कहाँ ख्याल सर्द आहों के सिवा रहा 

वक़्त ने यूँ मिटा तो दी तहरीरें कई 
सीने का मगर, हर ज़ख़्म हरा रहा 

रात भर शमा अश्कों की जला करी 
सहर कब हुई, ना शब् का पता रहा 

खौफ तन्हाई का यूँ मेरे घर आ गया 
जो उसकी यादों से ही गले लगा रहा 

जिंदा तो हम रहे थे, साँसे भी चलीं थीं 
पर कब दिल सुकूं में उसके बिना रहा 

उठ-उठ कर रातों को रोया किये हम 
हश्र यही "राज़" उम्र भर को बपा रहा 

गुरुवार, नवंबर 11, 2010

उनके तो मिलने ना आने के बहाने हज़ार हैं


उनके तो मिलने ना आने के बहाने हज़ार हैं 
कभी धूप, कभी बारिश, कभी पापा बीमार हैं 

और हम हैं के मान जाते हैं, हर बात उनकी 
क्या करें कमबख्त इश्क के हाथों लाचार हैं 

उन्होंने सहेली के हाथ से संदेसा है भिजवाया 
कैसे आयें हम के दरवाजे पे भैया पहरेदार हैं 

नहीं कर सकती मैं तुम्हे एक भी कॉल जानम 
माँ, भाभी और छोटी की नज़रें खाँ तीसमार हैं 

उनकी गली के कुत्तों को भी हम नहीं हैं सुहाते 
वो भी मुए हिफाज़त करते हुए बहुत खुद्दार हैं 

सोचा था के चाँद--तारों में देखूंगा शक्ल उनकी 
पर अमावस की रात छिप गए सारे मक्कार हैं

उनके आने का यकीं बस स्टॉप पे रहता है इतना 
के लास्ट बस जाने तक करते उनका इंतज़ार हैं 

लोग कहते हैं मुहब्बत में पगला गया है "राज़" 
क्या करें यारों खुशफहमी के हम भी शिकार हैं

शुक्रवार, नवंबर 05, 2010

दिल जो धड़के तो उनको भी खबर हो जाए


दिल जो धड़के तो उनको भी खबर हो जाए 
मेरी जानिब बस उनकी एक नज़र हो जाए 

अब तो तारीकी ही काबिज हैं गलियों में मेरी 
रुख से चिलमन जो ढले शायद सहर हो जाए  

मेरी पलकें गर उठे वो ही नज़र आये मुझे 
लब पे दुआओं का कुछ ऐसा असर हो जाए 

उसके दर्दो-अलम से वाकिफ कुछ ऐसा रहूँ 
वो आह भरे भी तो चाक मेरा जिगर हो जाए 

ऐ खुदा अबके ये बहारें बरसें कुछ ऐसी यहाँ  
सेहरा की शाख पे फिर गुल-ओ-समर हो जाए