मजहब नहीं देखता इश्क जात नहीं देखता
ये रंग नहीं देखता और औकात नहीं देखता
जब होना होता है किसी को तब हो जाता है
दिन नहीं देखता कभी, ये रात नहीं देखता
क्या खोया क्या गंवाया किसने क्या फिकर
कोई शह नहीं देखता, कोई मात नहीं देखता
दीद महबूब की ख्वाबों में किया करता है
बेतकल्लुफ सी कोई मुलाकात नहीं देखता
नहीं पड़ता है, फर्क इसे, कौन हैं क्या है तू
तू "तू" हैं सिवा इसके कोई बात नहीं देखता