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रविवार, जनवरी 10, 2010

अपना दर्द अब हम हर्फों में उतार बैठे हैं


अपना दर्द अब हम हर्फों में उतार बैठे हैं
लो फिरसे लिए एक ग़ज़ल तैयार बैठे हैं

लेके जज्बातों को अपने डूब जाने दो हमें
मिले हर खुशी उन्हें जो दरिया पार बैठे हैं

कल तक मंजिल नजर आती थी सामने
आज तो कमबख्त हम राहें भी हार बैठे हैं

ये जख्म-ओ-रुसवाई ये गम-ओ-तन्हाई
मेरे हमसाये बस तो अब यही चार बैठे हैं

रकीबों के हिस्से में गुल आ गए तो क्या
लिखवा के हम नसीबों में जो खार बैठे हैं

मेरे मर्ज का इलाज नहीं रहा बाकी कोई
सजा कर अजीज अब मेरी मजार बैठे हैं