लफ़्ज़ों की दहशत अजब काम ना कर दे
ये कलम चली है कहीं कोहराम ना कर दे
बात कडवी मगर सच ही तो रहती हमेशा
चुप बैठा हूँ, कहीं क़त्ल-ए आम ना कर दे
सन्नाटे में गुजर इक हद तक ही है वाजिब
हद जरा भी बढ़े तो जीना हराम ना कर दे
लत शराब औ' शबाब की अच्छी नहीं होती
कहीं ये घर बार तक तेरा नीलाम ना कर दे
जो सियासी लोग हैं उनसे जरा बच के रहिये
इनसे दोस्ती कहीं आपको बदनाम ना कर दे