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बुधवार, अप्रैल 29, 2009

डर लगता है...




तुझको अपना बना लूं डर लगता है
एक और चोट खा लूं डर लगता है

तू भी कहीं न संगदिल निकल जाए
तुझसे कैसे दिल लगा लूं डर लगता है

मेरे जख्मो को कोई देखने नहीं आता
कैसे हौसला आजमा लूं डर लगता है

तन्हाईयाँ भी अब साथ नहीं देती मेरा
इनसे क्या वादा निभा लूं डर लगता है

है पशेमां वो पर बेवफा तो है न "राज"
ऐतबार कितना उठा लूं डर लगता है.

मंगलवार, अप्रैल 28, 2009

इक शाम उसकी आँखों से ढल रही होगी




इक शाम उसकी आँखों से ढल रही होगी
हिज्र की रातों में वो बहुत मचल रही होगी...

है नाजुक बदन वो कुछ जियादा ही फिर भी
गम के चराग में रौशनी सी जल रही होगी...

महफिल में बेवजह मेरे नाम के जिक्र पर
सर्द आहें उसकी बर्फ सी पिघल रही होगी...

ना पूछेगी मौसमो से बहारों का वो पता
सेहरा की गर्म रेत पे खामोश चल रही होगी....

के वक़्त भी उसके इन्तेज़ार में रुक गया होगा
और वो हर आहट पे घर से निकल रही होगी...

वो अल्फाज़




उसने जाते जाते
कह दिया था
कि
जल्दी आ जाना
कहीं
देर न हो जाए
''
''
''
''
शायद वो सच कह गयी
"
"
"
"
आज भी
मेरी लाचारी,
बेबस वक़्त,
और
वो अल्फाज़,
उसकी तस्वीर के
खूंटे से टंगे हैं

सोमवार, अप्रैल 27, 2009

बहुत उदास हूँ



बहुत उदास हूँ एक सदा दे कोई
तनहा कब तक रहूँ उससे मिला दे कोई ...

शब् की तन्हाईयां बिखरी बहुत हैं
सहर का उसको भी पता दे कोई ...

किसी के वादों का ऐतबार क्या करुँ
आके पहले वादे निभा दे कोई ...

मेरे जख्मो की लम्बी दास्ताँ है
कुछ हो इलाज मर्ज की दवा दे कोई ...

इक चिंगारी भी क़यामत ला सकती है
आग के शोलो को न हवा दे कोई ...

कौन देखेगा



अबके इन हवाओं का सफ़र कौन देखेगा 
हम ही ना होंगे तो ये घर कौन देखेगा...

पतझर आएगा तो गुल भी ना होंगे 
तनहा तनहा सा ये शजर कौन देखेगा...

जहाँ तक है नजर जमीं सेहरा हुई है 
घटा बरसेगी भी तो असर कौन देखेगा...

परिंदे छोड़ कर बस्तियां दूर जाने लगे 
शब् बीत भी जाए तो सहर कौन देखेगा...

जिसके दम से अब तक आबाद थी गलियां 
"राज" चला गया तो शहर कौन देखेगा...

रविवार, अप्रैल 26, 2009

याद उसकी




सुबह शाम आये है याद उसकी
मेरी रूह को सताए है याद उसकी...

मैं भूल भी जाऊं गर उसे कभी
खुद ही खुद बुलाये है याद उसकी...

फूलों का खिलना है चेहरा उसका
और खुशबू बिखराए है याद उसकी...

काफिर भी बंदगी खुदा की करे
जब दुआ हो जाए है याद उसकी...

मैं चाह के भी आँखें नम ना करुँ
हर घड़ी को मुस्कराए है याद उसकी...

ख्वाबो में फिर से आने जाने लगी है वो




ख्वाबो में फिर से आने जाने लगी है वो 
देख के मुझको यूँ ही मुस्कराने लगी है वो 

कौन कहता है की तवज्जो नहीं दिया करती 
नजरे चार हों तो सर झुकाने लगी है वो 

सखियाँ मेरे नाम से जब छेड़ती है उसको 
दांतों से दबा उँगलियाँ शरमाने लगी है वो 

चुपके-2 रातो को याद करके भरती है आहें 
अफसानो में नाम मेरा ही गुनगुनाने लगी है वो 

दोनों जहाँ में उस जैसी कोई वफ़ा नहीं होगी 
"राज" की कम निगाही को भी अदा बताने लगी है वो

सहर होती नहीं


शब् जाती नहीं सहर होती नहीं 
तेरे बगैर मेरी गुजर होती नहीं 

तेरी सूरत दिल में यूँ उतर गयी 
किसी चेहरे पे अब नजर होती नहीं 

सांस तो लिया करता हूँ जीने को 
पर धड़कन की कहीं बसर होती नहीं 

कैसे भूल जाऊ तुझे सूझता नहीं "राज"
याद करने से फुर्सत किसी पहर होती नहीं.

शनिवार, अप्रैल 25, 2009

दर्द जब हद से गुजर गया होगा.....


दर्द जब हद से गुजर गया होगा 
वो अपनी ही मौत मर गया होगा....

कल रात पुरवाई चली थी शायद 
पुराना हर जख्म उभर गया होगा....

कितना टूटा था उम्र भर से वो शख्स 
आईना था छूने से बिखर गया होगा....

बहुत बरसीं हैं बरसातें इस रुत में 
मंजर का मंजर ही निखर गया होगा....

जो वक़्त पे किसी काम ना आया "राज"
वो इंसा हर एक नजर से उतर गया होगा....

सांचे में ढल जायेगा..




हिज्र का मौसम भी यूँ ही बदल जायेगा 
टूटे हर दिल में चराग सा जल जायेगा...

आशिकों के ग़मों की हद देखेगा जमाना 
जमीं तो जमीं आसमां भी पिघल जायेगा...

करनी हो गर यारी तो सेहरा से तुम करो 
मंजर फजाओं का एक पल में बदल जायेगा...

सोचता हूँ उसको सीने से लगा के रो ही लूं 
जाने किस घडी वो दिल से निकल जायेगा...

करके हौसला तूफां में उतार देना तुम उसे 
बहते बहते वो शख्स खुद ही संभल जायेगा...

तुमको जो चाहिए उसको बना रखना तुम 
कच्ची मिट्टी है 'राज' सांचे में ढल जायेगा...

दर्द हैं , आंसू हैं , वहशत -ए -आलम है

दर्द हैं , आंसू हैं , वहशत -ए -आलम है 
मैं हूँ , घर है और तेरी याद का मौसम है ...

किस तरह से मैं खुद पे यकीं कर लू 
होठो पे तो नगमे हैं , साँसे बरहम है ...

हौसलों को उसने कुछ आजमाया है इस कदर 
के इस दम तो दम है , अगले में बेदम है ...

गुनाह उसका भी तो सर मेरे ही आ जाए 
दिल ना टूटे किसी का ये दुआ हरदम है ...

फजाए देखकर मुझको क्यूँ रोने लगी हैं 
अभी तो कुछ कहा नहीं , इनको किसका गम है ...

"राज" हंसते हैं तो गुमा होता है लेकिन 
पलकों के सिरहाने तो मेरे भी शबनम है ...



आँखे नम नहीं करता




मैं यूँ ही अपनी आँखे नम नहीं करता 
हँसता रहता हूँ खुद पे सितम नहीं करता 

न आये मेरी अयादत को कोई तो क्या कुछ नहीं 
मैं तो आईने को भी अपना महरम नहीं करता 

बेवफा होना उसकी मजबूरी रही होगी शायद 
वरना रस्मे -उल्फत वो मुझसे कम नहीं करता 

खुदा है तो अपने वजूद का असर भी छोडेगा 
समर हर दरख्त पे बहारो का मौसम नहीं करता 

शब् है तो दर पे सहर भी आयेगी कभी "राज"
चराग जलाता हूँ शाम से मातम नहीं करता .

रातें.....

हिज्र की रातें विसाल की रातें 
उलझे सुलझे सवाल की रातें

नींद में चलना ख्वाब में जगना 
कैसी हैं ये कमाल की रातें

शाम से दोनों बेचैन बहुत हैं 
तनहा दिल और बवाल की रातें

आलम-ए-फुर्कत ना पूछो मुझसे 
कटी हैं कैसे ख्याल की रातें

इजहार-ए-वफ़ा हम कर ना पाए 
रह गयी अब बस मलाल की रातें

इश्क में मिलती "राज" ये नेमत 
दर्द-ओ-गम और शलाल की रातें 

वो मुझको जब ख़त लिखती है..

वो मुझको जब ख़त लिखती है 
दिल की हर हसरत लिखती है 
नींद से बोझिल आँखे उसकी 
तनहा-दिल और फुर्कत लिखती है....
वो मुझको जब ख़त लिखती है

मुझको तो सब गैर लगे है 
सावन रुत से बैर लगे हैं 
कोई न मौसम अपना सा है 
कब होगी अब कुर्बत लिखती है....
वो मुझको जब ख़त लिखती है

मुझमे न अब मैं रहती हूँ 
हर शय में तुमको तकती हूँ 
मरने से पहले आ जाना 
मिल जाए गर फुर्सत लिखती है....
वो मुझको जब ख़त लिखती है 

कितना और सताओगे तुम 
कब मिलने को आओगे तुम 
अपना मुझे बनाओगे क्या 
होगी कब ये रहमत लिखती है....
वो मुझको जब ख़त लिखती है 

सोमवार, अप्रैल 06, 2009

मेरे चेहरे से इश्क का गुमाँ होता क्यूँ है ...

मेरे चेहरे से इश्क का गुमाँ होता क्यूँ है 
जब आग ही नहीं तो धुआं होता होता क्यूँ है 

चटकता है कहीं जब आइना ए-दिल किसी का 
हर बार मुझी पे ही सुब्हा होता क्यूँ है 

दिल न लगाने की यूँ तो कसम उठा रखी है 
उसकी यादो में फिर भी रतजगा होता क्यूँ है 

गर नसीब में अपने खुदा खार लिख गया हो 
तो फसल-ए-गुल से हमको गिला होता क्यूँ है 

एक शख्स जो बहुत खामोश मिला मुझसे 
शहर भर में उसका ही चर्चा होता क्यूँ है 

और मेरे रकीबो से तो वो प्यार से मिलता है 
देख के मुझको ही जाने खफा होता क्यूँ है .