जब कभी भी मज़हबी आग भड़काई गई
इंसानियत की हर इक बात बिसराई गई
जरा देखो तो ये वादी में चनार जल रहे हैं
नयी फ़स्ल में फिर बारूद है सुलगाई गई
रतजगों की हद कभी, हद से ज्यादा बढ़ी
ख्वाब दे दे करके फिर चश्म बहलाई गई
ऐ, गम-ए-जिन्दगी मैं तुझे समझाऊं क्या
किन बहानों से तबियत राह पर लाई गई
यूँ तो लोगों ने कहा के है बुरा ये इश्क पर
मेरे दिल से तो कभी इसकी ना रानाई गई
जब तिरी यादों ने हौले से पूछा आके हाल
दर्द का दरिया थमा और मौजे तन्हाई गई
लगता है 'राज़' के ये नाम-ए-खुदा झूठा है
क्यूँ उस तलक न मुफलिसों की दुहाई गई