मेरे हक में जब भी फैसला होगा
पत्थर उनके और सर मेरा होगा
लहुलुहान जिस्म है मेरे शहर का
फिर से मजहबी खंजर चला होगा
सावन में बेवक्त बरसता है बादल
शायद, उसका भी दिल टूटा होगा
छोड़कर के जिस्म रूह चल देगी
इक रोज देखना, ये हादसा होगा
दर्द भी सहना पर कुछ ना कहना
इश्क के हक में यही लिखा होगा
नफरतों का मिजाज़ तो पूछिए
इक मासूम उसमे भी बचा होगा
बहुत ही सुकून की नींद आती है
उसे तो ग़ुरबत का ही नशा होगा
मेरी बातों पे यूँ तो रंज है सबको
पर मेरे बाद इन पे मर्सिया होगा
बुरा वक़्त सब सिखा देगा 'राज़'
जो भी मदरसे से बच गया होगा