हुयी जब ग़ज़ल खुशनुमा आरजू जैसी
हाथ उठे औ निकली दुआ आरजू जैसी
अब करे काफिर भी सजदा इन्ही पे ही
के लगती है सूरत-ए-खुदा आरजू जैसी
सहर होती है उसकी अंगडाईयों से ही
चलती है फिर बादे-सबा आरजू जैसी
बन जाती है वो तहरीर खुबसूरत बहुत
जिन हर्फों की हो इब्तिदा आरजू जैसी
अल्फाज़ ''राज'' के हो जाएँ मुक्क़मल
के मिल जाए ग़ज़ल-सरा आरजू जैसी
वाह...बहुत सुन्दर...
जवाब देंहटाएंसंगीता जी...आभार.
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