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मंगलवार, जुलाई 13, 2010

आरजू जैसी.....



हुयी जब ग़ज़ल खुशनुमा आरजू जैसी  
हाथ उठे औ निकली दुआ आरजू जैसी  

अब करे काफिर भी सजदा इन्ही पे ही 
के लगती है सूरत-ए-खुदा आरजू जैसी 

सहर होती है उसकी अंगडाईयों से ही
चलती है फिर बादे-सबा आरजू जैसी 

बन जाती है वो तहरीर खुबसूरत बहुत 
जिन हर्फों की हो इब्तिदा आरजू जैसी 

अल्फाज़ ''राज'' के हो जाएँ मुक्क़मल
के मिल जाए ग़ज़ल-सरा आरजू जैसी 

2 टिप्‍पणियां:

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