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रविवार, जुलाई 18, 2010

चाँद ढल रहा है थोडा निखार दे दूँ


अपनी तन्हाई उसको उधार दे दूँ 
चाँद ढल रहा है थोडा निखार दे दूँ 

रुतें बहुत तप के गयीं है तेरे बाद 
क्यों ना इन्हें यादों की बहार दे दूँ 

हद तलक हैं इस दिल की तश्नगी 
चलो मयकदे चलूं इसे करार दे दूँ

उसकी याद आये आंसुओं के साथ  
ये लम्हा आँखों को खुशगवार दे दूँ 

मेरे बगैर कहीं उसका दिल ना लगे 
दुआ अपने दिल से ये बेशुमार दे दूँ 

वो आईना भी जो देखे तो मुझे पाए 
उसके चेहरे पे नक्श यादगार दे दूँ 

शम्म सी हो जाए सुलगती रहा करे 
मौसम-ए-शबनम का इंतजार दे दूँ 

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूबसूरत ग़ज़ल...हमेशा की तरह

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  2. शानदार गज़ल..आनन्द आया.

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  3. संगीता जी.....हमेशा की तरह आपके खुबसूरत शब्द...
    शुक्रिया.... हौसला बढ़ाने के लिए....

    समीर भाई.....आपके जेहन तक उतरी......
    दिल खुश हो गया.....शुक्रिया.....

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