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मंगलवार, जुलाई 06, 2010

चाँद भी मुआ रात भर बौराये फिरे


कुछ यूँ वो अपना गम भुलाये फिरे
दर्द में भी रहके जो मुस्कराये फिरे 

ये शैख़ साहिब क्या समझाए फिरे 
खुद भी शाम मयकदे में आये फिरे 

उसको कमबख्त लोग दीवाना कहें 
जो किसी के इश्क से उकताये फिरे 

शाम जो बाम पे उसे देख ले गर ये 
चाँद भी मुआ रात भर बौराये फिरे 

अल्लाह बख्शे जिन्हें अदा-ओ-हुस्न
वो तो पानी में भी आग लगाये फिरे 

नाम मेरा पढ़ ले ना ज़माना उनपे 
चेहरा नकाब में ही वो छुपाये फिरे

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