रात अश्कों का आना जाना तुझसे कहते कैसे
अपने दर्दो-गम का फ़साना तुझसे कहते कैसे
के तुझे फुर्सत नहीं गैरों की महफ़िल से मिली
कुछ अपना दिल नहीं माना तुझसे कहते कैसे
हुआ ज़िक्र जो यूँ बे-वफाओं का तो खामोश रहे
नाम तेरा भी था उनमे आना तुझसे कहते कैसे
तेरे गम लिए आँख रखीं पुरनम खुद की हमने
हंसने का तो था बस बहाना तुझसे कहते कैसे
तेरे ख्यालों से ही थी मुक़म्मल तहरीर अपनी
था ग़ज़लों का तू उन्वाँ जाना तुझसे कहते कैसे
तर्के-ताल्लुक नहीं कोई मरासिम नहीं ''राज़''
के नहीं रहा अब वो ज़माना तुझसे कहते कैसे
बहुत खूबसूरत गज़ल ...
जवाब देंहटाएंतेरे गम लिए आँख रखीं पुरनम खुद कीं हमने
जवाब देंहटाएंहंसने का तो था बस बहाना तुझसे कहते कैसे
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उम्दा शेर..........
बहुत खूब! ख़ूबसूरत गज़ल...
जवाब देंहटाएंहर एक शेर उम्दा. बेहतरीन गज़ल.
जवाब देंहटाएंउम्दा है
जवाब देंहटाएंचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 29 -03 - 2011
जवाब देंहटाएंको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.blogspot.com/
संगीता जी......शुक्रिया, रचना को सम्मिलित करने हेतु..
जवाब देंहटाएंसुरेन्द्र भाई.....आभार
कैलाश साब....शुक्रिया
रचना जी......शुक्रिया
अजय जी....हौसला देते रहें..आभार
waah ... bahut khoob
जवाब देंहटाएंbahut badhiya
जवाब देंहटाएंitna chhua aapke shabdo ne ki khud is gazal me jee gayi. bahut umda.
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