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रविवार, अक्तूबर 10, 2010

तुमको तो बस ना आने का कोई बहाना चाहिए


तुमको तो बस ना आने का कोई बहाना चाहिए 
कभी खुशनुमा सहर, कभी दिन सुहाना चाहिए 

खुद हो क्या बेक़सूर जो उठाते हो तुम उँगलियाँ 
तो यूँ नहीं इल्जाम किसी पर भी लगाना चाहिए 

रिश्तों की शाखों पे ऐसे नहीं समर लगा करते हैं 
कभी तुम्हे भी तो हमारे घर आना-जाना चाहिए 

अपने हालात तुमसे मैं और बयां करूँ कैसे यारों 
भटक रहा हूँ सेहरा में, बस इक ठिकाना चाहिए 

इस जहाँ में अब बसर नहीं होगी ऐ मासूम तेरी 
यहाँ तो जीने की खातिर इंसान सयाना चाहिए 

इश्क का कारोबार तो बड़ा पेचीदा हो गया यहाँ 
दिल हार जाना चाहिए औ नफ़ा कमाना चाहिए 

अरे, मरीज-ऐ-इश्क है ये ''राज़'' उसे दवा ना दो 
उसको तो साथ रिन्दों का और मयखाना चाहिए 

9 टिप्‍पणियां:

  1. ख़ुद हो क्या बेकसूर जो उठाते हो तुम उंगलियां,
    तो यूं नहीं इल्जाम किसी पर भी लगाना चाहीए।

    नवीनतम भावों से परिपूर्ण एक सुंदर ग़ज़ल...बधाई।

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  2. हमेशा की तरह उम्दा रचना..बधाई.

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  3. आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (11/10/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा।
    http://charchamanch.blogspot.com

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  4. ऐसा लेखन है कि लगता है कि सामने बैठकर कह रहे हों…

    जवाब देंहटाएं
  5. संगीता जी....शुक्रिया

    महेंद्र जी....शुक्रिया

    संजय भाई...शुक्रिया

    आशीष भाई..शुक्रिया

    अनुपमा जी..शुक्रिया

    हरीश जी...शुक्रिया

    वंदना जी..रचना को शामिल करने हेतु आभार

    जवाब देंहटाएं

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