तुमको तो बस ना आने का कोई बहाना चाहिए
कभी खुशनुमा सहर, कभी दिन सुहाना चाहिए
खुद हो क्या बेक़सूर जो उठाते हो तुम उँगलियाँ
तो यूँ नहीं इल्जाम किसी पर भी लगाना चाहिए
रिश्तों की शाखों पे ऐसे नहीं समर लगा करते हैं
कभी तुम्हे भी तो हमारे घर आना-जाना चाहिए
अपने हालात तुमसे मैं और बयां करूँ कैसे यारों
भटक रहा हूँ सेहरा में, बस इक ठिकाना चाहिए
इस जहाँ में अब बसर नहीं होगी ऐ मासूम तेरी
यहाँ तो जीने की खातिर इंसान सयाना चाहिए
इश्क का कारोबार तो बड़ा पेचीदा हो गया यहाँ
दिल हार जाना चाहिए औ नफ़ा कमाना चाहिए
अरे, मरीज-ऐ-इश्क है ये ''राज़'' उसे दवा ना दो
उसको तो साथ रिन्दों का और मयखाना चाहिए
खूबसूरत गज़ल ..
जवाब देंहटाएंख़ुद हो क्या बेकसूर जो उठाते हो तुम उंगलियां,
जवाब देंहटाएंतो यूं नहीं इल्जाम किसी पर भी लगाना चाहीए।
नवीनतम भावों से परिपूर्ण एक सुंदर ग़ज़ल...बधाई।
हमेशा की तरह उम्दा रचना..बधाई.
जवाब देंहटाएंआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (11/10/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
बहोत ही अच्छी रचना
जवाब देंहटाएंsundar rachna!
जवाब देंहटाएंऐसा लेखन है कि लगता है कि सामने बैठकर कह रहे हों…
जवाब देंहटाएंसंगीता जी....शुक्रिया
जवाब देंहटाएंमहेंद्र जी....शुक्रिया
संजय भाई...शुक्रिया
आशीष भाई..शुक्रिया
अनुपमा जी..शुक्रिया
हरीश जी...शुक्रिया
वंदना जी..रचना को शामिल करने हेतु आभार
बेहतरीन गजल
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