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सोमवार, मार्च 22, 2010

दर्द ही जिंदगी का इक हमसफ़र रहा


वो मेरे जख्मों से जबसे बेखबर रहा 
दर्द ही जिंदगी का इक हमसफ़र रहा 

खामोश रह गए तो गुनहगार हो गए 
बेवफाई का इल्जाम मेरे ही सर रहा 

नहीं बहला था दिल शाम के आने से 
मन्जर तन्हाई का फिर रात भर रहा 

बात कर लेते तो शायद सुलझ जाती 
रुसवा होने का मगर उनको डर रहा 

यूँ तो आसमाँ में बर्क बहुत चमकी 
निशाना सिर्फ एक मेरा ही घर रहा

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