मेरा हो चला अब दुश्मन उनका शहर भी
साकी बगैर लगता है ये पैमाना जहर भी
उनके आने का वादा, बस वादा ही रहा है
गुजरी हैं कई शामे मेरी मुंतजिर ठहर भी
बिस्मिल नहीं होती हैं ये शब् के खौफ से
देखी है इन आँखों ने क़यामत की सहर भी
हिज्र के मौसम में मेरे ख्वाब क्या बिछड़े
आता नजर पलकों पे रतजगों का कहर भी
कुछ लफ़्ज़ों का अफसूँ, हल्की सी बंदिश
मिल जाती मेरी ग़ज़ल में, थोड़ी बहर भी
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अफसूँ---Magic
شكريه
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत गज़ल .....
जवाब देंहटाएंआप ने बहुत कमाल की गज़ले कही हैं
जवाब देंहटाएंसहसपुरिया जी.....
जवाब देंहटाएंसंगीता जी....
संजय भाई..
आप सभी का शुक्रिया..... कुछ तकनीकी कमियां हैं इस ग़ज़ल में...
पर आप सब ने मेरा मान रखा....आभार
अच्छे ख़यालात, तकनीकी कमी आपको मालूम है शायद, वास्तव में उर्दू के लिहाज़ से क़हर,बहर,शहर,ज़हर के सयोजन में 2-1(पहला दीर्घ व दूसरा लघु होता है,(example-ज़हर में ज़ह जुड़े होते और र अकेला होता है, जबकि सहर व ठ्हर में 1-2( पहला लघु दूसरा दीर्घ होता है exaamp.सहर में स अकेला है व हर जुड़े होते हैं। लेकिन हिन्दी के लिहाज़ से गलत नहीं मानी जाती, स्व:दुशयन्त कुमार त्यागी जी ने भी शहर का उपयोग 1-2 श अकेला व हर को जोड़ कर किया है। और आपत्ति आने पर कहा था मुझे ये मालूम है पर मैने इसे एक आम आदमी के बोलचाल के हिसाब से ही उपयोग किया है।
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