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मंगलवार, मई 04, 2010

फर्क वरना कुछ नही इंसान और इंसान में


बना रखी लकीरें मजहब की हमने शान में 
फर्क वरना कुछ नही इंसान और इंसान में 

कह लो हिंदी, कह लो उर्दू, या कहो फ़ारसी 
दिल ही मिलने चाहिए, कोई भी जबान में 

यूँ तो हम में मुक्तसर सी है नहीं कोई अदा 
पावँ रखे हैं जमीं पे, रखे सोच आसमान में 

इश्क के अब नाम पे ये खेल यारों हो रहा 
लैला-लैला खोजते हैं मजनू हर दुकान में 

तालीम वो सही जो मुल्क की बरकत करे 
वरना क्या रखा यहाँ है गीता में क़ुरान में 

दश्त में जिसने कभी झुकना सीखा ना हो 
वो शजर दबके रहे आँधियों के अहसान में 

भीगती आँखों ने उसे यूँ जुदा तो कर दिया 
रह जाएगा वो मगर ख्वाहिशों-अरमान में 

शब् का अंजाम यहाँ इससे ज्यादा कुछ नहीं 
शाम रंगीं बदलेगी फिर सहर की थकान में 

उन्वान अपनी गजलों में 'राज' रखते नहीं 
कोई तो पहुंचेगा मेरे, ख्यालों की उड़ान में 

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