लम्हों लम्हों में बस ढलता रहा
ये वक़्त रुका न, फिसलता रहा
जिसने न की कभी क़दर इसकी
वो उम्र भर बस हाथ मलता रहा
गयी रुतें तो, वो पत्ते भी चल दिए
सहरा में तन्हा शजर जलता रहा
दोस्त समझ के जिसे साथ रखा
आस्तीनों में सांप सा पलता रहा
उसकी यादों की गर्मी में, बर्फ सा
रोज कतरा कतरा मैं गलता रहा
मंजिल की दीद हुई न कभी मुझे
ता-उम्र मैं सफ़र पे ही चलता रहा
उसके जाने का गम तो नहीं पर
ना लौटने का वादा खलता रहा
उसके जाने गम तो नही पर
जवाब देंहटाएंन लौटने का वादा खलता रहा
उत्कृष्ट पंक्ति
सादर
bahut sundar gajal , badhai aapka blog sundar aur accha laga .
जवाब देंहटाएंwelcome at my blog
http://sapne-shashi.blogspot.com
बहुत सुन्दर प्रस्तुति..!
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (23-12-2012) के चर्चा मंच-1102 (महिला पर प्रभुत्व कायम) पर भी की गई है!
सूचनार्थ!
लाजवाब
जवाब देंहटाएं"मंजिल की दीद हुई न कभी
ता उम्र मैं सफ़र पे ही चलता रहा"
उसके जाने का गम तो नहीं पर.
जवाब देंहटाएंना लौटने का वादा खलता रहा.
बहुत सुंदर गज़ल.
badhiya lagi gazal...
जवाब देंहटाएंusske jane ka ghum to nhi
जवाब देंहटाएंpar aane wada khalta raha
wahhh...bemisaal....
http://ehsaasmere.blogspot.in/
शानदार ग़ज़ल लिखी है आपने.
जवाब देंहटाएंBadhai ...Behtreen Rachna ke liye....
जवाब देंहटाएंhttp://ehsaasmere.blogspot.in/
बहुत ही बढ़ियाँ...
जवाब देंहटाएं:-)
आप सभी का तहे दिल से शुक्रिया ....
जवाब देंहटाएंअपनी नजरो करम यूँ ही बनाये रखें ....