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रविवार, अप्रैल 29, 2012

उनके लिए तो होठों से बस दुआ निकले



क्या हुआ जो के वो हमसे बेवफा निकले 
उनके लिए तो होठों से बस दुआ निकले 

उसका जिक्र हो तो बे-जुबाँ भी बोल पड़े 
काफिरों के लब से भी खुदा खुदा निकले 

चलो आओ हम भी नयी मोहब्बत लिखें 
नए ज़माने में नया सा फलसफा निकले 

कोई बे-वजह इसे बदनाम ना कर सके 
हो काश यूँ के मय भी कभी दवा निकले 

सहर आये मुस्कराती बागों में फलक से 
तब जाके गुंचों की शर्म-ओ-हया निकले 

गयी रुतों के फिर सारे पैरहन उतार कर 
देखो अबके शजर बहुत खुशनुमा निकले

पलकों पे फिर आंसुओं के सितारे जवाँ हों
जब याद उसकी दिल से होके सबा निकले

सदियाँ गुजर गयीं बस ये सोचते--सोचते   
के किसी रोज तो वो मेरी गली आ निकले 

के चाहो तो चीर दो तुम तहरीर "राज़" की 
लफ़्ज़ों में कुछ ना आरज़ू के सिवा निकले 

1 टिप्पणी:

  1. आपकी कलम में रवानी, और दिल में ये जज्बा कायम रहे

    आपके लिए दिल से सुबो शाम सिर्फ यही एक दुआ निकले

    मुकेश इलाहाबादी ----------

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