जलते चराग सारे बुझा आयी है शायद
जो शब् होकर के खफा आयी है शायद
लो, अब खामोश तहरीर हो गयी है वो
हाँ, ख़त मेरे सब जला आयी है शायद
के अब रात-रात भर यादों में जागते हैं
काम कुछ तो मेरी दुआ आयी है शायद
सच कह कह के सबसे उलझते रहना
मेरे हक में ये ही सज़ा आयी है शायद
महक उठे हैं खुशबू से हजारों आलम
उसके गेसू छू के हवा आयी है शायद
होगी आरज़ू भी मुक्क़मल ''राज़'' की
खुदा की अब तो रज़ा आयी है शायद
वाह ... बेहतरीन
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना...
जवाब देंहटाएं:-)
बहुत खूब !
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ कर के भी आ गई
कोई बात नहीं होता है ऎसा भी
अच्छा लगा सुनकर
आखिरकार वो आ गई
बहुत खूब !!
जवाब देंहटाएंbhut khoob sir....
जवाब देंहटाएंआप सभी का हार्दिक आभारी हूँ....
जवाब देंहटाएंसुंदर ग़ज़ल !
जवाब देंहटाएंबहुत खूब!
जवाब देंहटाएंसादर
आभार आप सभी का... यूँ ही हिम्मत बढ़ाते रहें... शुक्रिया
जवाब देंहटाएंWah .....Kya baat hai ji
जवाब देंहटाएंbehtaeen, bahut umdaa likha hae..aankho ke saamne yado ke manzar chal pade...
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