भर गयी है इन्सां में कुछ इस कदर बुराई यारों
अब नजर नहीं आता दस्तूर-ए-रहनुमाई यारों
और जो क़त्ल हुए थे कल रात मजमे में देखो
कोई और नहीं वो, थे हमारे--तुम्हारे भाई यारों
चनार के सब बाग़ हैं झुलसे और चनाब रोये है
किसने वादी में फिर से यूँ दहशत मचाई यारों
संगीनों के साए में तो अपना साया भी न दिखे
क्या खुदा रहा वो और क्या उसकी खुदाई यारों
बस बात मजहब की, जबाँ की चलती है वहां
आता नहीं नज़र कहीं पे गोशा-ए-भलाई यारों
सियासतदानों से उम्मीद करना भी बेमानी है
क्या अब तलक कभी उन्होंने है निभाई यारों
कहकहों से घर की वीरानियाँ हों फिर से रौशन
ले आओ तुम ही कुछ भाई-चारे की दवाई यारों
*गोशा-ए-भलाई - अच्छा करने का अंदेशा
बहुत सुन्दर संदेश देती गज़ल्।
जवाब देंहटाएंजी हाँ भाई चारे की आवश्यकता अत्यधिक है इस समय. सुंदर सन्देश देती गज़ल.
जवाब देंहटाएंसत्य को सही संदर्भों में उजागर करती आपका अभिव्यक्ति मन के संबेदनशील तारों को झंकृत कर गयी । मेरे पोस्ट पर आपका तहे दिल से स्वागत है ।. धन्यवाद । .
जवाब देंहटाएंआज का सत्य लिखा है इस पूरी गज़ल में ... लाजवाब शेर हैं सभी ...
जवाब देंहटाएंविजय दशमी की हार्दिक बधाई ...