कभी अपने डर से निकला करो
बे-सबब ही घर से निकला करो
हम तो हाथ थाम लेंगे तुम्हारा
इस भरोसे पर से निकला करो
सिवा दर्द के ये कुछ नहीं देता
यादों के सफ़र से निकला करो
गैरों से रख लो तर्के-ताल्लुक
मेरे भी इधर से निकला करो
रात में तुम जुगुनू बनकर अब
अंधेरों के शहर से निकला करो
इश्क की राहें इतनी आसान नहीं
मियां थोडा सबर से निकला करो
"राज़" कभी ख्याल भी समझो
ग़ज़ल-ओ-बहर से निकला करो
बहुत खूब .जाने क्या क्या कह डाला इन चंद पंक्तियों में
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंsundar!
जवाब देंहटाएंबेहद भावपूर्ण अभिव्यक्ति ......
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया गजल!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर गज़ल्।
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छा.....मेरा ब्लागः-"काव्य-कल्पना" at http://satyamshivam95.blogspot.com/ ....आप आये और मेरा मार्गदर्शन करे...धन्यवाद
जवाब देंहटाएंआप सभी का हार्दिक आभार और शुक्रिया..
जवाब देंहटाएंजो आपने यहाँ तक आने का कष्ट किया और मेरा हौसला बढाया...
यूँ ही अपना प्यार और स्नेह बनाये रखें.....