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रविवार, नवंबर 08, 2009

दर्द की इस दिल में एक फुहार चल पड़ी थी


दर्द की इस दिल में एक फुहार चल पड़ी थी
गुलिस्ताँ से रूठ कर जब बहार चल पड़ी थी

आसमाँ तलक मुझे बस सन्नाटा ही मिला
नजर होके जब घर से बेकरार चल पड़ी थी

आँखों में बेसबब ही ख्वाब आते जाते रहे थे
वो नजर करके कैसा कारोबार चल पड़ी थी

जाने क्या जिद के चराग जलता रहा घर में
ये हवा तो उसकी जानिब तैयार चल पड़ी थी

शहर का शहर अजनबी सा लगने लगा मुझे
चंद लम्हें क्या वो साथ में गुजार चल पड़ी थी

हयात से कभी कोई गुजारिश नहीं थी "राज"
तो वो भी देके, इश्क ऐ आजार चल पड़ी थी.

4 टिप्‍पणियां:

  1. वाह .....हर शे'र लाजवाब लगा .....आपकी गजलें देखीं बहुत बढिया लिखते हैं आप ,,,,,!!

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  2. शुक्रिया जो आपने अपना वक़्त इस नाचीज के लिए दिया ....आभारी हूँ....

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  3. bhai.....maine mara ke nahi par aapne yakin dila diya ki kuchh halka sa asar hua to hai.....bas hausla afzai aur galtiya dekhte rahiyega

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