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गुरुवार, अक्तूबर 29, 2009

दर्द का मौसम भी एक रोज गुजर जाएगा


दर्द का मौसम भी एक रोज गुजर जाएगा
तेरे आने से जर्रा जर्रा तक निखर जाएगा

जब मेरी हसरतें नाकाम सदा सी लौटेंगी
जहन-ओ-दिल से ये खुदा का डर जाएगा

मुंतजिर कितना था ये दिल सहर के लिए
शब् भर जगा भी था, पर अब घर जाएगा

और तूफां कभी कोई ताउम्र नहीं टिकता
हौसलें गर हैं तो हर दरिया उतर जाएगा

वस्ल की रात को दोनों लिपट के रोयेंगे
समां आलम में ये फिर रात भर जाएगा

आंसुओं की फसलें अब हम उगाते नहीं
इस सहरा में भी मुस्काता शजर जाएगा

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