कहता हूँ कोई हौसला ऐ हवा ना कर
मेरे चराग को बे-सबब छुआ ना कर
सुलग उठते हैं उदासी से सफहे कई
आंसुओं से ग़ज़ल को लिखा ना कर
गर तेरे बस में नहीं है दुआ ना सही
तू मगर किसी को भी बद्दुआ ना कर
उसकी फितरत है ज़फायें तो रहने दे
कौन कहता है तुझसे तू वफ़ा ना कर
ये सख्त लोग हैं कैफियत ना समझे
होकर यूँ मासूम जहाँ में रहा ना कर
नज़र लग जाए ना कहीं डर है बहुत
आईने में खुद को इतना पढ़ा ना कर
सुना माह की नीयत भी अच्छी नहीं
तो छत पे तन्हा उससे मिला ना कर
वक़्त से पहले कुछ मिलता ना कभी
किस्मत से बे-वजह यूँ गिला ना कर
खुदा तेरी भी सुनेगा इक दिन "राज़"
लिए ''आरज़ू'' अपनी यूँ फिर ना कर
वाह बेहद खूबसूरत शेरो से सुसज्जित गज़ल ………आनन्द आ गया।
जवाब देंहटाएंग़ज़ल की बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति दी है आपने!
जवाब देंहटाएंभाई साहब इतनी सुन्दर ग़ज़ल बिना दाद के रह गई -
जवाब देंहटाएंनजर लग जाए न कहीं ,डर है बहुत ,
आईने में इतना खुद को पढ़ा न कर ,
उसकी फितर है ,ज़फाएं तो रहने दे ,
कौन कहता तुझसे ,तू वफ़ा न कर ।
ये ब्लोगियों की दुनिया भी बड़ी बे -दिल है ,
अच्छे शायर बे -दाद पड़ें हैं ।
मजा आ गया पारम्परिक ग़ज़ल का ।
अंदाज़ अपना आईने के देखते हैं वो ,
और ये भी देखतें हैं कोई ,देखता न हो ।
आईना देख के ये देख ,संवारने वाले ,
(अरे )तुझपे बेजा तो नहीं मरते हैं मरने वाले .
वंदना जी..............आभार
जवाब देंहटाएंमयंक भाई साब....शुक्रिया
वीरू भाई...............बहुत बड़ी बात कह दी आपने....
आपकी अकेले की तारीफ 100 के बराबर है....
दिल खुश हो गया....यूँ ही हौसला देते रहिये.... शुक्रिया