जब कभी भी हौसला तीरगी करने लगे
लौ चरागों पे धर हम रौशनी करने लगे
इसकी फितरत पर क्या भरोसा कीजिये
जाने कब क्या फिर ये आदमी करने लगे
हो गयी थी काबिज़ फलक पे शाम जब
सब दरख्तों के परिंदे वापसी करने लगे
बाद मुद्दत के घर को लौट आया कोई जब
घर के दीवार-ओ-दर मौशिकी करने लगे
ख़त मेरे यूँ ही फिर पढ़ लिया करना तुम
जब परेशां तुम्हे तन्हाई-बेबसी करने लगे
ज़मात-ए-इश्क में नाम अपना क्या लिखा
हुज़ूर उस रोज़ से हम भी शायरी करने लगे
औलिया की दरगाह पे जो क़दम अपने पड़े
क्या गजब के काफिर भी बंदगी करने लगे
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