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मंगलवार, दिसंबर 01, 2009

जिन्दगी अब मुझको खराब सी लगती है


मयकश के जामों की शराब सी लगती है
जिन्दगी अब मुझको खराब सी लगती है

जिसको भी देखो लूटने को बेचैन हुआ है
तवायफ के हुश्न-ओ-शबाब सी लगती है

रोज इबादत यूँ तो उस खुदा की करता हूँ
फिर भी मुझे बंदगी अजाब सी लगती है

मुहब्बत की ये पहेली कुछ अजब रही है
सवाल पे सवाल, बेहिसाब सी लगती है

कुसूर उन निगाहों का है या खता मेरी है
के शाम ढलके भी आफताब सी लगती है

इश्क में तबाही के मंजर क्या हुए "राज"
मेरी सूरत बस उनके जवाब सी लगती है

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