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रविवार, अक्तूबर 18, 2009

अब ये आहें कब मेरी असर लाती हैं



अब ये आहें कब मेरी असर लाती हैं
दिल से निकलती हैं, बिखर जाती हैं

आप मर भी जाओ, अपनी बला से
वो मय्यत में भी बन-संवर आती हैं

हमे समझाती है निगाहें वाइज जो
कभी मैकदे पे वो भी ठहर जाती हैं

नामाबार को देखूं तो अब करूँ क्या
ख़त में वो इन्कार ही भिजवाती हैं

नजरों को भी कुछ काम तो चाहिए
एक से हटे तो दूजे पे ठहर जाती हैं

2 टिप्‍पणियां:

  1. यही तो दुनियांदारी है। बहुत सही लिखा है।

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  2. सुमन जी और रचना जी..दिल से आभारी हूँ जो आपने वक़्त दिया.....

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