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रविवार, अक्तूबर 10, 2010

मेरा गम यूँ मेरे दिल के ही अंदर रहा


मेरा गम यूँ मेरे दिल के ही अंदर रहा 
फिर भी मैं तो बड़ा मस्त कलंदर रहा 

ये सोच के इश्क में हार जाया किये थे 
के कब जीतकर भी खुश सिकंदर रहा 

जाने क्या रंजिश बादलों की रही हमसे 
के सारा शहर भीगा घर मेरा बंजर रहा 

वो तेरा हाथ छुड़ाना और ख़ामोशी मेरी 
ता--उम्र आँखों में बस यही मंजर रहा 

जब भी नफे नुकसान का हिसाब देखा 
मेरी पीठ पे, मेरे अपनों का खंजर रहा  

6 टिप्‍पणियां:

  1. संजय भाई...शुक्रिया

    संगीता जी....शुक्रिया

    वंदना जी....रचना को शामिल करने हेतु आभार

    जवाब देंहटाएं
  2. यूं तो पूरी ग़ज़ल बेहतरीन है लेकिन यह शेर मुझे ज्यादा पसंद आया
    जाने क्या रंजिश बादलों की रही हमसे,
    के सारा शहर भीगा घर मेरा बंजर रहा।

    जवाब देंहटाएं
  3. नूतन जी....आप आये यहाँ तक.....शुक्रिया..रौनके महफ़िल होती रहिएगा...

    महेंद्र वर्मा जी.... बहुत बहुत आभार जो आपने कीमती वक़्त दिया मेरी इस रचना को..शुक्रिया

    जवाब देंहटाएं

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