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मंगलवार, अप्रैल 03, 2012

पत्थर हम छू भर लें तो वो पिघलने लगते हैं



मौसमों की तरह वो भी रंग बदलने लगते हैं 
बुरे वक़्त दोस्त भी बचके निकलने लगते हैं 

जिन्हें मजहब का अलिफ़-बे भी नहीं पता  
बात मजहबी चले तो खूब उबलने लगते हैं 

आग दंगों की भला किसी को छोडती है कभी 
हिंदू हो या मुस्लिम घर सबके जलने लगते हैं  

वो लोग और होंगे जो पीकर लड़खडाते होंगे 
हम वो हैं जो पीकर के और संभलने लगते हैं 

ग़ज़ल में जिक्र जो उसका जरा सा हम कर दें 
ये चाँद सितारे फिर क्यूँ भला जलने लगते हैं 

जो सच बात तो वो कड़वी ही लगनी है तुमको 
क्या करें हम जो लफ्ज़ आग उगलने लगते हैं 

"राज़" मालूम है हमको क्या तासीर है अपनी  
पत्थर हम छू भर लें तो वो पिघलने लगते हैं 

5 टिप्‍पणियां:

  1. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  2. बहुत सुन्दर अभिवयक्ति...

    कभी इधर भी तशरीफ लाइए...

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  3. "पत्थर हम छू भर लें तो वो पिघलने लगते हैं"
    सच यकीं हो गया है आप तो कुछ भी पिघला सकते हैं. हर एक शेर लाजवाब है

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  4. आभार आप सभी का.. हौसला अफजाई करते रहें...

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