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शनिवार, अगस्त 13, 2011

फिर से मोहब्बत के वो ज़माने आ जाएँ



फिर से मोहब्बत के वो ज़माने आ जाएँ 
गर कैस जैसे कुछ और दीवाने आ जाएँ 

कभी वो बे-हिजाब बाम पे चल क्या पड़े  
ये चाँद सितारे सब जश्न मनाने आ जाएँ 

कोई परिंदा छत पे भले चहके ना चहके 
पर जिसे चाहें वो किसी बहाने आ जाएँ 

गर हो फलक के अब्र से बूंदों के करिश्मे 
सहरा में भी फिर मौसम सुहाने आ जाएँ 

आँखों की तश्नगी को भी आराम हो नसीब 
याद जो उसकी, पलक छलकाने आ जाएँ 

शब्-ए-गम की इन्तेहाँ भी हो किसी रोज 
सुबहें खुशियों की जो मुस्कराने आ जाएँ 

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी प्रस्तुति!
    रक्षाबन्धन की हार्दिक शुभकामनाएँ!

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  2. बहुत ख़ूबसूरत गज़ल..

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  3. अत्यंत भावपूर्ण और मार्मिक गज़ल. रक्षाबंधन और स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनायें.

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  4. बहुत भावभीनी रचना।

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