सच है के ग़ालिब, जौक, मोमिन, मीर नहीं हूँ मैं
हाँ, पर खूबसूरत लफ़्ज़ों का भी फ़कीर नहीं हूँ मैं
मेरे जज्बों की भी कद्र होगी तुम मेरे बाद देखना
क्या हुआ, जो के, नीरज, राहत, बशीर नहीं हूँ मैं
मेरे कहे पे तो सुलग उठता है ये ज़माना ही सारा
क्या करूँ आदतन मजबूर जो हूँ, कबीर नहीं हूँ मैं
बहुत नाजुक, बहुत मासूम है, अंदाजो-बयां मेरा
छू कर देखो मोम हूँ, कोई दहकता तीर नहीं हूँ मैं
माना की ग़ज़ल है तीखी ये और कड़वे हैं शेर मेरे
पर अहसास मेरे भी दिल में हैं, बे-पीर नहीं हूँ मैं
यूँ तो गज़ल के सारे शेर अच्छे हैं पर मुझे आखिरी शेर कुछ ज्यादा ही पसंद आया .
जवाब देंहटाएंSUNDAR ..
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