फिर से मोहब्बत के वो ज़माने आ जाएँ
गर कैस जैसे कुछ और दीवाने आ जाएँ
कभी वो बे-हिजाब बाम पे चल क्या पड़े
ये चाँद सितारे सब जश्न मनाने आ जाएँ
कोई परिंदा छत पे भले चहके ना चहके
पर जिसे चाहें वो किसी बहाने आ जाएँ
गर हो फलक के अब्र से बूंदों के करिश्मे
सहरा में भी फिर मौसम सुहाने आ जाएँ
आँखों की तश्नगी को भी आराम हो नसीब
याद जो उसकी, पलक छलकाने आ जाएँ
शब्-ए-गम की इन्तेहाँ भी हो किसी रोज
सुबहें खुशियों की जो मुस्कराने आ जाएँ
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंरक्षाबन्धन की हार्दिक शुभकामनाएँ!
बहुत ख़ूबसूरत गज़ल..
जवाब देंहटाएंबढ़िया प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंअत्यंत भावपूर्ण और मार्मिक गज़ल. रक्षाबंधन और स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनायें.
जवाब देंहटाएंबहुत भावभीनी रचना।
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