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रविवार, जुलाई 17, 2011

शाम ढलती है जब कहीं पर बवाल रखती है


शाम ढलती है जब कहीं पर बवाल रखती है 
चेहरे पे वो अपने तो रंग सुर्ख लाल रखती है 

उतर जाए है शब् की थकान उसकी आमद से 
सहर अपने अंदर कुछ ऐसा कमाल रखती है 

गम मिलता है तो लिपट जाता है खुद ही खुद 
ख़ुशी आये है जब तो कितने सवाल रखती है 

क्या कह डालूं वफादारी की बात उसकी यारों 
वो पगली आज भी ख़त मेरे संभाल रखती है 

अपनी दुआओं में अब भी नाम लेती है मेरा 
खुद से भी ज्यादा वो तो मेरा ख्याल रखती है 

अपने हालातों को बयां किसी से करती नहीं 
हंसी की ओट में छुपाकर के शलाल रखती है 

लफ़्ज़ों को करीने से यूँ ही नहीं सजाते "राज़" 
ग़ज़ल ही बज़्म में मेरे दिल का हाल रखती है 

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