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गुरुवार, फ़रवरी 03, 2011

गर तेरी याद जरा टल गयी होती



गर तेरी याद जरा टल गयी होती 
तबियत अपनी संभल गयी होती 

माह आने का जो वादा ना करता  
रात भी चरागों में जल गयी होती 

तेरे ख्यालों से ही हर्फ़ सजे थे मेरे 
वरना कही कब ग़ज़ल गयी होती 

ग़मों ने ही तो संभाला है मुझको 
ख़ुशी होती तो निकल गयी होती 

काबिल मैं ही ना था शायद उसके 
नहीं तो किस्मत बदल गयी होती 

खामोश दरिया सा मैं लौट आया हूँ 
काश तश्नगी जरा मचल गयी होती 

क़ज़ा के खेल में जिन्दगी हार बैठी 
सोचता हूँ एक चाल चल गयी होती 

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