गर तेरी याद जरा टल गयी होती
तबियत अपनी संभल गयी होती
माह आने का जो वादा ना करता
रात भी चरागों में जल गयी होती
तेरे ख्यालों से ही हर्फ़ सजे थे मेरे
वरना कही कब ग़ज़ल गयी होती
ग़मों ने ही तो संभाला है मुझको
ख़ुशी होती तो निकल गयी होती
काबिल मैं ही ना था शायद उसके
नहीं तो किस्मत बदल गयी होती
खामोश दरिया सा मैं लौट आया हूँ
काश तश्नगी जरा मचल गयी होती
क़ज़ा के खेल में जिन्दगी हार बैठी
सोचता हूँ एक चाल चल गयी होती
बहुत सुन्दर मुकम्मल गजल लिखी है आपने!
जवाब देंहटाएंबेहद ही सुदंर गजल। आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत गज़ल..
जवाब देंहटाएंkamaal ka likha hai hazoor
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