रात को थोड़े ही रौशन बनाने निकलता है
चाँद किसी को देखने के बहाने निकलता है
जब सोचता हूँ उसकी याद मिटा दूँ जेहन से
ख़त इक पुराना फिर सिरहाने निकलता है
कभी आँखों से बहा, कभी सफ्हे पे उतरा है
दर्द भी बदल बदल के ठिकाने निकलता है
कौन है यहाँ पर जो रुदाद-ए-गम सुने मेरी
हर कोई अपनी कहानी सुनाने निकलता है
क़ज़ा के पहलू में जब रूठ जाती है जिंदगी
फिर कहाँ कोई उसको मनाने निकलता है
माना के जुबाँ तल्ख़ है ज्यादा ही "राज" की
पर हर लफ्ज़ कुछ नया बताने निकलता है
वाह !!बहुत सुन्दर..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना.......
जवाब देंहटाएंआभार आप सभी का.. हौसला अफजाई करते रहें...
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