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गुरुवार, नवंबर 10, 2011

ये ग़ज़ल मेरी....



दर्द-ओ-अलम का समाँ ये ग़ज़ल मेरी 
है मेरी तन्हाई की जुबाँ ये ग़ज़ल मेरी 

इसके हर मिसरे में छुपी रुदाद भी है 
मेरे ज़ख्मों का है निशाँ ये ग़ज़ल मेरी 

ये लफ्ज़ सुलगते हैं यादों में किसी की 
तो बनके उठती है धुआँ ये ग़ज़ल मेरी 

किसी महके ख्याल जैसी लगे है कभी 
है कभी खंडहर सा मकाँ ये ग़ज़ल मेरी 

बहार आयी ना हो आगोश में जिस के
उसी पतझर का है बयाँ ये ग़ज़ल मेरी 

'राज़' नासमझ को भी समझ लेना यूँ 
कहाँ मीर, ग़ालिब कहाँ ये ग़ज़ल मेरी 

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