बाद मुद्दतों के जैसे अपने घर चले
उनकी यादें जब हम छोड़ कर चले
अदालत-ए-हुस्न में वो मुक़र चले
वफ़ा के सब इल्जाम इस सर चले
यूँ हम छोड़ दें ये हँसना-रोना तक
अपने दिल पे इख्तियार गर चले
यहाँ जज्ब बयानी ही करते रहे हैं
इस ग़ज़ल में कब कोई बहर चले
खुद ही बुझ थे गए चराग खामोश
हवा सोचती रही, किस डगर चले
मय ने आदतें बिगाड़ी है जिनकी
उनपे नसीहतों का कब हुनर चले
कब तलक यूँ इश्क का मातम हो
जैसे भी है जिंदगी बस गुज़र चले
कहें 'राज़' की सोहबत नहीं अच्छी
बदनाम ही सही यहाँ नाम पर चले
खूबसूरत गज़ल
जवाब देंहटाएंबहुत खूब कहा।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया...
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