07/07/2011 सुबह ५ बजे जब रात ढली नहीं थी और सहर चली नहीं थी...
यूँ ही जेहन के दरिया में किसी का ख्याल मचल गया....
लफ़्ज़ों की कश्ती को सफहों के साहिल पे उतार लाया था.....
वही आपकी पेश-इ-खिदमत है.....
इसे पढ़ते समय वक़्त का ख्याल जरुर रखियेगा.. "सुबह के ५ बजे और याद उनकी......."
शब् की सुर्खी कुछ उतर जाए तो चली जाना
खुशबु फूलों से यूँ बिखर जाए तो चली जाना
अभी भी आसमाँ पे चांदनी छिटकी है जरा सी
सहर लेकर के इसे जो घर जाए तो चली जाना
देखो तो मौसम भी गुलाबी हुआ नहीं है अभी
रंगत कुछ इसकी निखर जाए तो चली जाना
अभी तो ये लफ्ज़ अंगड़ाइयां ही ले रहे हैं मेरे
ग़ज़ल इनसे कोई संवर जाए तो चली जाना
बहुत बढ़िया ...हरेक शेर लाजवाब है
जवाब देंहटाएंbadhiyaa
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर गज़ल
जवाब देंहटाएंलाजवाब गज़ल.
जवाब देंहटाएंहर शेर बेहतरीन
बहुत सुंदर शे'र!उस पर आपके शब्द -जाल क्या कहने ..
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