दर्द का ये मंज़र भी इक रोज ठहर जाएगा
मुसाफिर ही तो है कब तक किधर जाएगा
अभी इन्हें छोड़ भी दो यूँ ही खुला रहने दो
वक़्त बदलेगा सब ज़ख्मों को भर जाएगा
रोज-ए-क़यामत जो कभी यूँ फैसला होगा
इलज़ाम इश्क का दोनों के ही सर जाएगा
और आज जो उकताया फिरे मुझसे बहुत
कल हिज्र में मुझे ढूंढते इधर उधर जाएगा
बहुत उड़ता है परिंदा आसमाँ में दूर तलक
थक गया जब कहीं तो लौट के घर जाएगा
"आरज़ू" चाँद पाने की यूँ रख लो तुम "राज़"
के हुआ कभी तो कोई सितारा उतर जाएगा
बहुत सुन्दर गज़ल्।
जवाब देंहटाएंbadhiya gazal
जवाब देंहटाएंशानदार गजल।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन ग़ज़ल!!!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन
जवाब देंहटाएंbehtareen gajal
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