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शनिवार, फ़रवरी 12, 2011

वस्ल की सदा ना लिखना



हिज्र है मुक्क़दर तो वस्ल की सदा ना लिखना 
जो यूँ चराग बख्शा है तूने, तो हवा ना लिखना 

कब करी ख्वाहिश मैंने किसी खजाने की यहाँ 
मेरी किस्मत तू कुछ उसके सिवा ना लिखना 

मुझे हासिल है दर्द में भी इक लज्जत अब तो 
ऐ खुदा अब कोई खुशियों की सबा ना लिखना 

मिल भी जाए गर मेरी पीठ पे यूँ खंज़र उसका 
के वो है मासूम, उसकी कोई खता ना लिखना 

हम अपनी आँखों को ही जला के रौशनी करेंगे 
मेरी खातिर महर-ओ-माह, दुआ ना लिखना 

निखर आएगा रंग सफहों पे अंदाजे-सुखन का 
नाम उसका ही लिखना, कुछ नया ना लिखना 

यूँ तो ग़ज़ल में मैंने अपने ख्याल उतारे रखे थे 
कुछ पता ना था क्या लिखना क्या ना लिखना 

मज़बूरी-ए-हालात की शायद वो रही थी मारी
कभी तुम "राज़" उसको यूँ बेवफ़ा ना लिखना

5 टिप्‍पणियां:

  1. गज़ब के भाव भरे हैं आपने गज़ल मे…………हर शेर शानदार्।

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  2. लाजवाब ग़ज़ल है हर शेर दाद के काबिल. ऐसा लगता है की दिल दिमाग सब कुछ उड़ेल दिया है इस खूबसूरत ग़ज़ल में. मुहब्बत के लिए क्या कुछ नहीं करना पड़ता है. ये भी एक मिसाल है.

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  3. बेहरतीन गजल लिखी आपने
    सच कहा आपने जब दिल की बातें लिखी जाती है तो उसमें किसी और बात का ख्याल नही रहता ।

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  4. Bade hi khubsoorat jasbaat hain ,aur kya kahen ?~http://blog.soulcare.in/

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  5. शुक्रिया आप सभी का.....

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Plz give your response....