आज-कल तो वो बड़ी ही शान में रहता है
क्या बात हुयी है किस गुमान में रहता है
जो चला है मेरे आँगन में पत्थर बरसाने
अरे खुद भी तो कांच के मकान में रहता है
हो शाम तो लौटना उसे भी शज़र पे ही है
दिन भर जो परिंदा आसमान में रहता है
खुदा की मुझपे तो कभी इनायत ना हुयी
कौन जाने के वो किस जहान में रहता है
एक अरसा हुआ है उसका ख्याल भुलाए
पर वो चेहरा आज भी ध्यान में रहता है
इतनी मिठास कहीं और नहीं है मिलती
जो लहजा अपनी उर्दू ज़बान में रहता है
इबादत लबों से नहीं दिल से निकलती है
रोज़ा जब भी माह-ए-रमजान में रहता है
शज़र जो ख़ामोशी से हवा में झुक गए हों
उनसे लड़ने का ना दम तूफ़ान में रहता है
कमसुखन हैं "राज़", पर ये बात जान लो
वज़न तो उसके हर इक बयान में रहता है
क्या बात हुई है जाने किस गुमान में रहता है ...
जवाब देंहटाएंजो चला है मेरे आँगन में पत्थर बरसाने ,खुद शीशे के मकान में रहता है ...
अच्छी ग़ज़ल !
har sher bahut hi khoobsurat hai. umda gazal.
जवाब देंहटाएंवाणी जी......
जवाब देंहटाएंअनामिका जी.....
शुक्रिया आप दोनों का..