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मंगलवार, जुलाई 13, 2010

आरजू.....


मेरी गजलों में रहता तेरा चर्चा-ए-आम आरजू 
कुछ और नहीं आता नजर सुबहो-शाम आरजू 

तुझे मिलके जाने कैसी वहशत हो गयी मुझमे 
तेरी गलियों में फिरता हूँ बस बेमुकाम आरजू 

इक बार मेरा मुकद्दर होने का जो तू वादा कर दे 
सच कहता हूँ दे दूंगा मैं तो कुछ भी दाम आरजू 

सदके तेरे, इबादत तेरी, और तुझे ही खुदा कहूँ 
"हाँ" पर तेरी मैं तो हो जाऊं तेरा गुलाम आरजू 

देखा तुझे जिस रोज से है और कुछ भाता नहीं 
मिट गयीं हैं दिल की थीं जो भी तमाम आरजू 

कुछ और नहीं इसके सिवा, ऐ खुदा वो मांगता 
'राज' ने रखा बस अपनी दुआ का नाम आरजू

6 टिप्‍पणियां:

  1. वाह जी क्या बात है. बहुत उम्दा गज़ल .

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  2. जनदुनिया जी.....आभार प्रियवर...हौसला अफजाई करते रहें....

    अनामिका जी......शुक्रिया....आपके शब्द मेरे लिए कीमती हैं....

    Bless u both....TC

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  3. संगीता जी............शुक्रिया.......
    आप के अपनत्व के लिए सदा आभारी रहूँगा..
    आपके लफ्ज़ प्रेरणादायक होते हैं .... :)
    दुआ देती रहिएगा............नमन .

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  4. आपकी कविता बहुत अच्छी है। भाव पक्छ बहुत मज्बूत है। इसको मैं ग़ज़ल का नाम देने में कंजूसी इसलिये कर रहा हूं क्यूकि ग़ज़ल की ज़मीं पर बहुत सारी बदिशें हैं जिन्हें आपको भविश्य में ्ठोस करनी होगी। बहरहाल आपकी दूसरी मिसरे में (तुझे मिल के की जगह तुझसे मिलके होनी चाहिये) व 4थे मिसरे में( हां पर तेरी मैं तो हो जाऊं तेरा ग़ुलाम) में तेरी और तेरा दो बार आना सही नहीं है ।
    अच्छे भाव से परीपूर्ण कविता के लिये दिल से बधाई मुबारक़बाद व धन्यवाद।

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  5. संजय भाई साब....शुक्रिया....
    शब्दों की इतनी बारीकी तक जाने के लिए....
    आप का साथ रहा तो......एक दिन जरुर उम्दा ग़ज़ल बनेगी..
    हौसला और सलाह देते रहिएगा.........[:)]

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