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मंगलवार, नवंबर 24, 2009

लिखता हूँ इक ग़ज़ल के बहर चाहिए



लिखता हूँ इक ग़ज़ल के बहर चाहिए
ये शब सुर्ख बहुत है अब सहर चाहिए

क़त्ल करके भी वो कातिल रोता फिरे
अपने इश्क में कुछ ऐसा हुनर चाहिए

रुदादे गम कुछ यूँ सबसे कह देना तुम
के नम आँखें लिए हर इक बशर चाहिए

जो आंधियां भी आयें तो सहमी सी फिरें
आँगन में मुझको बेख़ौफ़ शजर चाहिए

ले-ले कर हिचकियाँ दम निकले उनका
यादों में अपनी कुछ ऐसा असर चाहिए

हमारे रकीबों से उनकी बनती है तो बने
पर हमसे ही धड़के उनका जिगर चाहिए

यक-ब-यक 'राज' जो कभी चार हो जाएँ
झुक जाएँ फिर शर्म से, वो नजर चाहिए.

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