जुनूँ जाने कैसा वो, उस रोज मेरे सर में था
जिससे बिछड़ना था मैं उसी के शहर में था
बेतरतीबी में जीस्त की आराम से गुजरी
मुश्किल हुआ था वो सफर जो बहर में था
सहर ने उनको यूँ ही चकनाचूर कर दिया
रात भर जो भी कुछ ख्व्बीदा नजर में था
वक़्त की गर्दिश को तो सब आ गया नज़र
छुपते कहाँ कि सारा जहाँ अपने घर में था
किसी के कान तक न गईं मासूम की चीखें
ये सारा शहर कैसी नामर्दी के असर में था
उसके बगैर मौसम-ए-बहाराँ का क्या करें
सुकून बहुत उसकी याद की दोपहर में था
सिवा मुफलिसी के कुछ हासिल नहीं "राज़"
वो शख्स जो बस सादा-हर्फी के नगर में था
सादा-हर्फी- सच बोलने वाला
waaaaaaaaaaah
जवाब देंहटाएंbhot khub
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंसाझा करने के लिए आभार!
उसके बगेर मौसमे बहाराँ का क्या करे,
जवाब देंहटाएंसुकून बहुत उसकी याद की दोपहर में था.
बहुत खूब,,उम्दा प्रस्तुति.
सुन्दर लगे हैं शेर ...
जवाब देंहटाएंलाजवाब शेर हैं सभी ...
जवाब देंहटाएंआपकी यह पोस्ट आज के (२५ मई २०१३) ब्लॉग बुलेटिन - किसकी सजा है ? पर प्रस्तुत की जा रही है | बधाई और सादर आभार |
जवाब देंहटाएंआपकी यह पोस्ट आज के (२५ मई २०१३) ब्लॉग बुलेटिन - किसकी सजा है ? पर प्रस्तुत की जा रही है | बधाई और सादर आभार |
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
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