जो भी यहाँ सच की रह-गुजर चले
उसके घर पे यारों फिर पत्थर चले
मैं दुश्मनों से तो वाकिफ था मगर
मेरी पीठ पर दोस्तों के खंजर चले
लोगो ने उसको हँसता हुआ देखा है
कौन जाने क्या दिल के अंदर चले
लफ्ज़ ये गर तुम्हे चुभे तो क्या करें
हमारी शायरी में तो यही तेवर चले
तुम्हारी बातों से ही जान में जान है
याद आओ तो साँसों का लश्कर चले
मैं उसूलों पे कायम था तो पीछे रहा
आगे बे-उसूल वाले ही अक्सर चले
जोर अपने बाजुओं में रखना "राज़"
दूर तलक साथ कभी न मुकद्दर चले
kya khoob kahaa...
जवाब देंहटाएंआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल रविवार 10-फरवरी-13 को चर्चा मंच पर की जायेगी आपका वहां हार्दिक स्वागत है.
जवाब देंहटाएंबहुत ही लाजवाब गज़ल ... मज़ा आ गया ...
जवाब देंहटाएंwaah! bahut khub!
जवाब देंहटाएंआभार मित्रों .....
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