नयी मुश्किलें औ' नयी परेशानी देगी
चंद रोज में क्या-2, ये जिंदगानी देगी
बंज़र ख्यालों की रोज खेती करता हूँ
कभी ना कभी तो ग़ज़ल सुहानी देगी
लुटती आबरुयें, मक्कार सियासत'दां
बस यही सब क्या हमे राजधानी देगी
तरसी आँखें, तन्हा दिल, खामोश लब
बेशक मोहब्बत कुछ तो निशानी देगी
पाँव खुद-ब-खुद खिंच जायेंगे उस ओर
मंजिल दिखाई जो तुमको पुरानी देगी
मुफलिसी खिलौने नहीं खरीदने देती
मेरे बच्चे को सुकून कोई कहानी देगी
ज़हर बुझी बात है तुम्हारी 'राज़' मगर
जिसे लगेगी उसको सोच सयानी देगी
bahut sundar abhivyakti...
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ... सामयिक शेर हैं सभी ... ये राजधानी सच में क्या क्या देगी ...
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