यादों की बज्म में उसका चर्चा निकला
तब आँखों से एक और दरिया निकला
बादे-सबा जब भी चली उसके शहर से
सीने में एक और जख्म ताजा निकला
शब् भर उस इन्तजार की हद के पीछे
मुझसे किया उसका एक वादा निकला
मैं इक उम्र से उम्मीद-ए-फ़ज़ा लिए था
ख्वाब बिखरा तो वो भी सहरा निकला
शाम-ए-तन्हाई को जब सोचा किये हम
गजलों की शक्ल में हर जज्बा निकला
कहा आईने को जब कभी हाल अपना
चटक के टूट गया कैसा बेवफा निकला
जिस अक्स को लिए "राज" फिरते रहे
तारीकियों में वो भी ना अपना निकला
सुन्दर भावों को बखूबी शब्द जिस खूबसूरती से तराशा है। काबिले तारीफ है।
जवाब देंहटाएंshukriya bhai sahab...
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