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शुक्रवार, अप्रैल 02, 2010

मेरी मंजिलें ना रहीं काफिला ना रहा


मेरी मंजिलें ना रहीं काफिला ना रहा 
बगैर उसके कोई सिलसिला ना रहा 

चले आये थे क्यूँ तुम लूटने चमन को 
गुल यूँ अभी तो एक भी खिला ना रहा 

मेरे रकीब से वो जब मिल गया यारों 
इश्क में लुट जाने का हौसला ना रहा 

जर्द पत्तों ने खुद ही आँधियों को सौंपा 
दर्द से सहमे शजर का फैसला ना रहा 

मेरा हमराज था पर धोखा कर गया 
गैरों से कभी फिर हमे गिला ना रहा

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